कल्पना के पंखों के सहारे उड़ना सिखाती हैं बच्चों को बाल पुस्तकें : शिव प्रसाद शर्मा
बाल साहित्य पढ़ने से बच्चों व किशोरों में बाल अपराधों व किशोर अपराधियों को रोका जा सकता है: शिव प्रसाद शर्मा
(सोनीपत) :
जिला विधिक सेवाएं प्राधिकरण के तत्वाधान में माननीय मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी व सचिव रमेश चंद्र के निर्देशानुसार दिल्ली विद्यापीठ देवरू रोड सोनीपत में अंतर्राष्ट्रीय बाल पुस्तक दिवस पर कानूनी जागरूकता शिविर का आजादी का अमृत महोत्सव ,डेली लोक अदालत ,मौलिक अधिकार व कर्तव्य, यौन शोषण रोकथाम आदि विषयों पर आयोजन किया गया । जिसमें प्राधिकरण से मुख्य वक्ता अधिवक्ता शिव प्रसाद शर्मा रहे । जबकि कार्यक्रम की अध्यक्षता स्कूल के चेयरमैन वीर सिंह सैनी ने की । सर्वप्रथम विद्यालय मैनेजमेंट ,स्टॉफगण व बच्चों के द्वारा स्कूल के प्रवेश द्वार पर आजादी में शहीद हुए अज्ञात शहीदों के जीवन से संबंधित जानकारियां का अवलोकन किया गया और चिल्ड्रन बुक डे पर बच्चों ने पुराने साहित्य से रूबरू करवाया। तत्पश्चात विद्या की देवी माता सरस्वती को नमन किया गया । प्रिंसिपल आराधना ग्रोवर ने आए हुए वक्ता का अभिनंदन किया ।
मुख्य वक्ता अधिवक्ता शिव प्रसाद शर्मा ने कहा कि कुछ दशकों पहले तक बच्चों के हाथ में किताबें हुआ करती थीं। अब उनके हाथों में अक्सर मोबाइल या टीवी रिमोट दिखता है। वह कंप्यूटर पर गेम खेलते नजर आते हैं। वर्तमान हालात ये हैं कि बच्चे कोर्स की किताबें के अलावा शायद ही कुछ पढ़ते हों। यह एक बेहद चिंता का विषय है। अस्सी और नब्बे के शुरूआती दशक को बच्चों की रीडिंग हैबिट के लिहाज से स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। उस समय टीवी और कॉर्टून चैनल की मौजूदगी काफी कम थी। असल में तकनीक ने बच्चों की मौलिकता को प्रभावित किया है ।
संयुक्त राष्ट्र की पहल पर दो अप्रैल को दुनिया भर में अंतरराष्ट्रीय बाल पुस्तक दिवस मनाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य किताबों से बढ़ती बच्चों की दूरियों को कम करना है । किताबें ही लोगों की सच्ची दोस्त होती हैं। इन्हीं किताबों से अर्जित किया गया ज्ञान भविष्य में आगे की राह दिखाता है। इसकी शुरुआत बचपन से ही होती है, लेकिन आज के समय में बच्चों और साहित्य के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं। पहले गर्मी की छुट्टियों में बच्चे कॉमिक्स खरीदने की जिद किया करते थे। अखबार में महीने में एक बार या 15 दिनों में आने वाली कॉमिक्स का इंतजार करते थे और जैसे ही कॉमिक्स आती थी अगले दिन ही उसे पढ़कर खत्म कर जाते थे।
यहां तक कि दुकानों से किराए पर कॉमिक्स खरीदकर भी पढ़ते थे। धीरे-धीरे समय के साथ वीडियो गेम और कम्प्यूटर गेम्स और मोबाइल का चलन बढ़ता गया और अब बच्चे कॉमिक्स कि दुनिया से दूसरी तरफ मुड़ने लगे। बच्चों में किताबें पढ़ने की आदत विकसित करनें के लिए पहले माता-पिता को पढ़ने की आदत विकसित करनी पड़ेगी क्योंकि बच्चें वही करतें है जो वह अपनें घर में देखतें है। अगर घर परिवार में किताबें पढ़ने का माहौल होगा तो निश्चित तौर पर बच्चे भी उसी को अपनाएंगे। माता –पिता अगर खुद दिन भर मोबाइल या गैजेट्स में उलझें रहेंगे तो अपने बच्चों से कैसे उम्मीद कर सकतें हैं कि वो किताबें पढेंगे। सीधी सी बात है कि अभिभावकों को पहले खुद आदर्श बनना पड़ेगा। बच्चे भविष्य की दुनिया की नींंव हैं और उनके सुकोमल मन पर उनकी कोर्स की किताबों के अलावा बाल साहित्य का गहरा प्रभाव पड़ता है। बाल साहित्य बच्चों के सर्वांगीण विकास की आधार-भूमि तैयार करता है।
बाल साहित्य खेल-खेल में उसे आसपास की दुनिया से परिचित कराता है । उसकी सुकोमल जिज्ञासाओं को शांत करता है और उसे कल्पना के पंखों के सहारे उड़ना सिखाता है। बाल साहित्य के बिना न स्वस्थ बच्चे की कल्पना की जा सकती है और न स्वस्थ समाज की इसीलिए विश्व की जितनी भी प्रमुख भाषाएं हैं, उनमें बाल साहित्य को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। आज के वर्तमान तकनीकी युग में बाल साहित्य की जरूरत सबसे ज्यादा है। ऊपर से देखने पर लगता है कि आज के बच्चे मोबाइल, लैपटाप और कंप्यूटर गेम्स खेलने में व्यस्त हैं, पर सच्चाई यह है कि आज का बच्चा बहुत अकेला है।
पहले संयुक्त परिवारों में बच्चे दादा-दादी, नाना-नानी से रोज कहानियाँ सुनतें थे । वहीँ उन्हें संस्कारों की प्रारंभिक शिक्षा भी मिलती थी। संयुक्त परिवार में बड़े बुजुर्गों द्वारा रामायण, महाभारत, पंचतंत्र की कहानियांं, अकबर बीरबल की हास्य कथाएँ, मालगुडी डेज़ की कहानियांं सुनकर बच्चें बड़े होतें थे। हर एक कहानियांं बच्चे को भारतीय संस्कृति के करीब खींचती थी,
आदर्शों का पाठ पढ़ाती थीं, दिमाग पर बिना दबाव डाले सही गलत का अंतर दिखाती थी लेकिन तकनीक ने बच्चों को किताबों से दूर कर दिया।आज के एकल परिवारों में बच्चा दादा-दादी, नाना-नानी से तो दूर हो ही गया है, नौकरीपेशा माता-पिता के पास उसे देने के लिए समय नहीं है। उसके पास ढेरों सुविधाएं हैं, टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर सब है, पर कहीं अंदर से वह अकेला है।ऐसे में अगर वह कोई अच्छी बाल कविता या कहानियों की पुस्तक पढ़ता है, तो उसे लगता है कि उसे सच ही कोई अच्छा साथी मिल गया है, और तब उसके भीतर मानो आनंद का स्रोत फूट पड़ता है।
दुनियाभर में बच्चे और किशोर हिंसक हो रहें है उनकी उत्तेजना की वजह से किशोर अपराध भी बढ़ रहें है ऐसे में इन्हें रोकनें के लिए बाल साहित्य बहुत जरुरी है। बाल साहित्य इन भटके हुए बच्चों या किशोरों तक पहुंचता, तो वे इस अपराध की राह पर कभी न आते। बाल साहित्य बच्चे में न सिर्फ अच्छा और ईमानदार होने की प्रेरणा पैदा करता है, बल्कि वह अपराधियों को भी उस दलदल से बाहर निकालकर प्यार, सच्चाई, नेकी और मनुष्यता की राह पर ले आता है.
इस काम को बाल साहित्य जितने अच्छे ढंग से कर सकता है ।वैसा कोई और नहीं कर सकता। बाल साहित्य में बड़ी संभावनाएं हैं. अगर यह बात हमारे समाज के नीति निर्धारक ठीक से समझ लें तो देश की तस्वीर बहुत अच्छी और सकारात्मक होगी। बाल साहित्य की सबसे बड़ी चुनौती है सुदूर गांव के बच्चों, गरीब सर्वहारा परिवारों के बालकों और आदिवासी बालकों तक पहुंचकर, उनके अंदर जीवन का हर्ष-उल्लास, आत्मविश्वास और कुछ करने की धुन पैदा करना, ताकि आगे आकर वे भी अपने जीवन के अधूरे सपनों को पूरा करें।
बाल साहित्य की सभी विधाओं मसलन कविता, कहानी, कार्टून आदि का अपना आकर्षण है। यह बच्चे की रुचियों पर निर्भर करता है कि उसे क्या अधिक आकर्षित करता है। वैसे छोटे बच्चों को अपने लिए लिखी गई कविताएं याद करके बार-बार गाने-दोहराने में आनंद आता है। कुछ और बड़े होने पर उन्हें कहानियों का आकर्षण अधिक बांधता है।
कुछ आगे चलकर बच्चे बाल उपन्यास, नाटक, जीवनियां और ज्ञान-विज्ञान की विविध विधाओं का आनंद लेने लगते हैं। बाल साहित्य की हर विधा का अपना रस-आनंद है। बच्चे के मन और व्यक्तित्व में नयी ऊर्जा और प्रेरणा भरकर, उसमें कुछ कर गुजरने का भाव पैदा करना ही बाल साहित्य का उद्देश्य है। अंतरराष्ट्रीय बाल पुस्तक दिवस पर ये संकल्प लेना चाहिए कि बच्चों को मोबाइल ,गैजेट्स या किसी महगें गिफ्ट के बजाय, किताबें गिफ्ट करेंगे जिससे उनकी रचनात्मकता और मौलिकता में वृद्धि हो सके। इस अवसर पर दिल्ली विद्यापीठ प्रियदर्शन सैनी, सत्यप्रिय सैनी व समस्त स्टाफगण मौजूद रहा।