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इमरोज़ : बेपनाह मोहब्बत का जीवंत दस्तावेज़

कोलकाता, 26 दिसम्बर। अमृता प्रीतम एक ऐसा नाम, जो न सिर्फ पंजाबी साहित्य में बल्कि देश दुनिया के साहित्य में अपनी कविताओं, कहानियों के माध्यम से एक खास मुकाम हासिल कर चुकी हैं। उनके संस्मरण तो ऐसे शब्द चित्र होते हैं कि चलचित्र की तरह दृश्य सामने आ जाते हैं।

उनकी आत्मकथा रसीदी टिकट प्रकाशित होते ही काफी चर्चित रही थी, जिसके माध्यम से यह बात जगजाहिर हुई थी कि उनका विवाह काफी कम उम्र में हुआ था और फिर वह दो बच्चों की मां बनीं लेकिन उन्हें जिस प्यार की चाहत थी वह नहीं मिल सका और यह एक असफल विवाह साबित हुआ। उसके बाद वो शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी के संपर्क में आईं। शायद ये भी एक तरह से एकतरफा प्यार ही रहा। जीवन के आखिरी पड़ाव पर उनके जीवन में आते हैं- पेंटर इमरोज़!

इमरोज़ ने उनकी एक किताब का कवर डिजाइन किया था और उन्हें वो पसंद कराने आए थे। अमृता को वो कवर तो पसंद आया ही, पेंटर भी पसंद आ गया और फिर वे एक साथ रहने लगे। अमृता इमरोज से कभी-कभी यह शिकायत भी करतीं – अजनबी, तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते ! अमृता प्रीतम साहित्य जगत में विपुल साहित्य रच कर संसार से विदा हो चुकी हैं लेकिन उनके इमरोज़ के साथ रिश्ते और इमरोज़ के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी लोगों के पास नहीं है। कोलकाता फ़िल्म फेस्टिवल 2022 में एक डॉक्यूमेंट्री प्रदर्शित की गई है और इस फिल्म के निर्माता, निर्देशक हैं- हरजीत सिंह।

इमरोज़, जो आज 96 साल के हैं और मुंबई में रहते हैं , वे इस फिल्म के केंद्र में हैं। उन्होंने सारी घटनाओं को स्वयं उद्घाटित किया है कि जब वे एक साथ रहने लगे थे और वो उम्र में काफी बड़ी थीं । उसने कहा कि मैंने तो दुनिया देख ली है तुम भी जाओ और पहले सारी दुनिया देख लो फिर जरूरत समझो तो आना मैं तुम्हें यहीं मिलूंगी। इमरोज़ अमृता के प्रति इस कदर प्रेम में डूब चुके थे कि उन्होंने अमृता के चारों ओर सात चक्कर काटे और फिर सामने आकर कहा- अमृता, लो मैंने दुनिया देख ली है, अब मुझे तो यहीं रहना है।

अमृता ने मुस्कुराते हुए फिर कहा था- तुम्हारा और कुछ नहीं हो सकता, तो फिर तुम यहीं रहो। इमरोज उसके बाद अमृता के न सिर्फ किताबों के कवर तथा अंदर के पृष्ठ डिजाइन करते रहे बल्कि अमृता के कई चित्र भी बनाए और ता-ऊम्र उनके साथ बेपनाह मोहब्बत करते रहे । अमृता भले ही काफी समय तक हवाओं में उंगली से साहिर लिख दे रहीं थीं लेकिन इमरोज़ ने फिर भी उसे बेइंतहा प्यार किया और अमृता को लेखन के लिए पूरा सहयोग तो करते ही रहे, उनकी आखिरी समय बीमारी में भी पूरे जी-जान से सेवा सुश्रुषा की। अमृता 31 अक्टूबर, 2005 को इस दुनिया से रुख़सत हुईं तब भी इमरोज़ यही कहते रहे- उसने जिस्म छोड़ा है, साथ हरगिज़ नहीं!

इमरोज के लिए अमृता ने भी एक लंबी नज़्म लिखी थी जिसकी शुरुआती पंक्तियां कुछ इस तरह हैं:

मैं तुझे फिर मिलूंगी

कहाँ कैसे पता नहीं

शायद तेरी कल्पनाओं

की प्रेरणा बन

तेरे कैनवास पर उतरूंगी

या तेरे कैनवास पर

एक रहस्यमयी लकीर बन

ख़ामोश तुझे देखती रहूंगी

मैं तुझे फिर मिलूंगी …

इमरोज़: ए वाक डाउन मेमोरी लेन, जो अंग्रेजी में बनी एक डॉक्यूमेंट्री (वृत्तचित्र) है, इसका निर्माण निर्देशन तो शानदार हुआ ही है, इमरोज़ के चलने- फिरने, चित्र बनाते और तमाम क्रियाकलापों को बड़े ही खूबसूरत अंदाज में कलात्मक दृष्टि से फिल्माया गया है।

हरजीत सिंह एक अनुभवी फिल्मकार हैं इससे पहले कई फीचर फिल्में बना चुके हैं और कइयों की पटकथा भी लिखी है, मसलन- हीर रांझा, वैसाखी, हवाएं, ए जनम तुहाडे लेखे वगैरह। इसके अलावा उन्होंने बच्चों के लिए कई कार्टून फिल्में भी बनाईं तथा दूरदर्शन के लिए टेली फिल्में भी बनाते रहे। कुछ समय तक वहां प्रोड्यूसर भी रहे।

इमरोज: ए वाक डाउन मेमोरी लेन, देखने के बाद अगर सच कहा जाए तो ये महज़ एक डाक्यूमेंट्री नहीं, ये तो इमरोज़ की बेपनाह मोहब्बत का जीवंत दस्तावेज है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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